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Kavita Kosh से
"उंहू । मुझे नहीं खेलना ।"
नीली-नीली नींद में वो मेरी रग्बी ले कर भागता है । मैं उसके पीछे-पीछे..
पेड़-पहाड़, दरख़्त, नदियाँ, चट्टानें सब के सब खेल में शामिल । वो चकमेबाज़ मुझे पर्वतों की नोक पर गिरा देता है । "मुझे नहीं खेलना. । पीठ पर घाव हो गया । ऊँचाइयों की नोक चुभती है. । नहीं..नहीं. मुझे नहीं चाहिए ।"
वो मेरे चेहरे पर मिट्टी लपेट देता है. मुझसे लिपट जाता है ।
"ले ! रख ले अपनी रग्बी । ये रग्बी तेरी और तू मेरी, और तू मेरी, और तू मेरी ! "