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|रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र
|संग्रह=ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
तन में मन में शुद्ध मिट्टी है अभी तक गाँव में।
घर को जाती राह कच्ची है अभी तक गाँव में।

खेत में तकरार होती एकता फिर मेड़ पे,
कुछ लड़कपन कुछ नवाबी है अभी तक गाँव में।

मुँह अँधेरे ही किसी की याद में महुआ तले,
आँसुओं की सेज बिछती है अभी तक गाँव में।

एक वायर से हजारों बल्ब जलवाता नगर,
एक दीपक एक बाती है अभी तक गाँव में।

स्वाद में बेजोड़ लेकिन रंग इसका साँवला,
इसलिए गुड़ की जलेबी है अभी तक गाँव में।

सर झुकाता है सभी को छू चुके जब आसमाँ,
बाँस का ये पेड़ बाकी है अभी तक गाँव में।

चाय का वर्षों पुराना स्वाद जिंदा है अभी,
शुक्र है चौरे की तुलसी है अभी तक गाँव में।
</poem>
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