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|रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र
|संग्रह=ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
ज़िंदगी हो गई हाज़िरी की तरह।
हाज़िरी हो गई ज़िंदगी की तरह।

काम देते नहीं मेरे मन का मुझे,
और कहते हैं कर बंदगी की तरह।

प्यार करने का पहले हुनर सीख लो,
फिर इबादत करो आशिकी की तरह।

था वो कर्पूर रोया नहीं मोम सा,
नित्य जलता गया आरती की तरह।

रोज़ दिल के सभी राज़ मुझसे कहे,
फिर छुपाए मुझे डॉयरी की तरह।

एक दो झूठ जो उनके हक में कहे,
उसको मानेंगे वो ज्योतिषी की तरह।

वन से आई ख़बर सुन नगर काँपता,
जानवर हो गए आदमी की तरह।
</poem>
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