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|संग्रह=ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
हजार बार हार हो तो हो रहे तो हो रहे।
सपाट गर लिलार हो तो हो रहे तो हो रहे।

बस एक दीप चाहिए बना रहे जो राहबर,
घना जो अंधकार हो, तो हो रहे, तो हो रहे।

बहू तो लाइए जरा, सुनेगा फिर न आपकी,
सपूत होनहार हो तो हो रहे तो हो रहे।

न आँख मूँद कर कभी किसी को मानिए ख़ुदा,
कोई युगावतार हो तो हो रहे तो हो रहे।

लगाइए निराइए फ़सल जहाँ में प्यार की,
भविष्य में तुषार हो तो हो रहे तो हो रहे।

विजय समय की बात है जो मित्र मेरे साथ हों,
रकीब होशियार हो तो हो रहे तो हो रहे।
</poem>
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