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|संग्रह=ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
क्रांति के लाखों स्वरों में एक स्वर मेरा भी है।
खा रहे नेता जो उसमें आयकर मेरा भी है।

भाग आया मैं वहाँ से क़त्ल होता देखकर,
हाथ लेकिन ख़ून से क्यूँ तर-ब-तर मेरा भी है।

जो निठल्ला था वही अब काम आता है मेरे,
पुत्र एक परदेश में इंजीनियर मेरा भी है।

देखिए हर चीज साझा हो रही इस दौर में,
साथ उसके रह रहा जो वो लवर मेरा भी है।

आप हैं ‘सज्जन’ तो हम भी खुद को कहते हैं वही,
आप जैसा हूबहू देखें कवर मेरा भी है।
</poem>
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