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{{KKRachna
|रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र
|संग्रह=ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
ज़ुबाँ मिली पर कभी नहीं कुछ कहता है जूता।
इसीलिए पैरों के नीचे रहता है जूता।
कुछ दिन में विरोध इसका मर जाता इसीलिए,
जीवन भर आका की लातें सहता है जूता।
पाँवों की रक्षा करते करते फट जाता, पर,
आजीवन घर के बाहर ही रहता है जूता।
वफ़ादार कितना भी हो सब देते फेंक इसे,
बूढ़ा होकर जब मुँह से कुछ कहता है जूता।
अंत समय कचरे में जलता या फिर सड़ने तक,
नाले के गंदे पानी में बहता है जूता।
कैसे लिख दूँ शे’र आख़िरी जूते के हक में,
जीवन भर हर हक से वंचित रहता है जूता।
</poem>
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|रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र
|संग्रह=ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
ज़ुबाँ मिली पर कभी नहीं कुछ कहता है जूता।
इसीलिए पैरों के नीचे रहता है जूता।
कुछ दिन में विरोध इसका मर जाता इसीलिए,
जीवन भर आका की लातें सहता है जूता।
पाँवों की रक्षा करते करते फट जाता, पर,
आजीवन घर के बाहर ही रहता है जूता।
वफ़ादार कितना भी हो सब देते फेंक इसे,
बूढ़ा होकर जब मुँह से कुछ कहता है जूता।
अंत समय कचरे में जलता या फिर सड़ने तक,
नाले के गंदे पानी में बहता है जूता।
कैसे लिख दूँ शे’र आख़िरी जूते के हक में,
जीवन भर हर हक से वंचित रहता है जूता।
</poem>