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|संग्रह=ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
इक दिन हर इक पुरानी दीवार टूटती है।
क्यूँ जाति की न अब भी दीवार टूटती है।

इसकी जड़ों में डालो कुछ आँसुओं का पानी,
धक्कों से कब दिलों की दीवार टूटती है।

हैं लोकतंत्र के अब मजबूत चारों खंभे,
हिलती है जब भी धरती दीवार टूटती है।

हथियार ले के आओ, औजार ले के आओ,
कब प्रार्थना से कोई दीवार टूटती है।

रिश्ते बबूल बनके चुभते हैं ज़िंदगी भर,
शर्मोहया की जब भी दीवार टूटती है।
</poem>
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