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|रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र
|संग्रह=ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
सच है यही कि स्वर्ग न जाती हैं सीढ़ियाँ।
मैं उम्र भर चढ़ा हूँ पर बाकी हैं सीढ़ियाँ।

तन के चढ़ो तो पल में गिराती हैं सीढ़ियाँ,
झुक लो जरा तो सर पे बिठाती हैं सीढ़ियाँ।

चढ़ते समय जो सिर्फ़ गगन देखता रहे,
जल्दी उसे ज़मीन पे लाती हैं सीढ़ियाँ।

मत भूलिये इन्हें भले आदत हो लिफ़्ट की,
लगने पे आग जान बचाती हैं सीढ़ियाँ।

रहना अगर है होश में चढ़ना सँभाल के,
हर पग पे एक पैग पिलाती हैं सीढ़ियाँ।
</poem>
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