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{{KKRachna
|रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र
|संग्रह=ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
जब से हुई मेरे हृदय की संगिनी मेरी कलम।
हर पंक्ति में लिखने लगी आम आदमी मेरी कलम।
जब से उलझ बैठी हैं उसकी ओढ़नी, मेरी कलम।
करने लगी है रोज दिल में गुदगुदी मेरी कलम।
कुछ बात सच्चाई में है वरना बताओ क्यों भला,
दिन रात होती जा रही है साहसी मेरी कलम।
यूँ ही गले मिल के हैलो क्या कह गई पागल हवा,
तब से न जाने क्यूँ हुई है बावरी मेरी कलम।
उठती नहीं जब भी किसी का चाहता हूँ मैं बुरा,
क्या ख़त्म करने पर तुली है अफ़सरी मेरी कलम।
</poem>
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|रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र
|संग्रह=ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
जब से हुई मेरे हृदय की संगिनी मेरी कलम।
हर पंक्ति में लिखने लगी आम आदमी मेरी कलम।
जब से उलझ बैठी हैं उसकी ओढ़नी, मेरी कलम।
करने लगी है रोज दिल में गुदगुदी मेरी कलम।
कुछ बात सच्चाई में है वरना बताओ क्यों भला,
दिन रात होती जा रही है साहसी मेरी कलम।
यूँ ही गले मिल के हैलो क्या कह गई पागल हवा,
तब से न जाने क्यूँ हुई है बावरी मेरी कलम।
उठती नहीं जब भी किसी का चाहता हूँ मैं बुरा,
क्या ख़त्म करने पर तुली है अफ़सरी मेरी कलम।
</poem>