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|संग्रह=ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
याँ जो बंदे ज़हीन होते हैं।
क्यूँ वो अकसर मशीन होते हैं।

बीतना चाहते हैं कुछ लम्हे,
और हम हैं घड़ी न होते हैं।

प्रेम के वो न टूटते धागे,
जिनके रेशे महीन होते हैं।

वन में उगने से, वन में रहने से,
पेड़ सब जंगली न होते हैं।

उनको जिस दिन मैं देख लेता हूँ,
रात सपने हसीन होते हैं।

खट्टे मीठे घुले कई लम्हे,
यूँ नयन शर्बती न होते हैं।
</poem>
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