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युग चक्र / नरेश कुमार विकल

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<poem>
हट्ठा मे हरबाह झुकैये
हाथ मे धयने हऽर यौ।

कोना कें बाँचत लाजई तनकें
कोना कें जाएब घऽर यौ।
कोना कें भेंटत रोजी-रोटी
कोना कें कपड़ा-घऽर यौ।

कुसुमित कानन कुंज क्लेशक
छै कयने श्रृंगार यौ
चान इजोरिया बाँटि रहल छै
मुदा ने थिक उपहार यौ।

आइ पलासक पल्लव पल-पल
बदलै रूप-अनुप यौ
सिंगरहार श्रृंगार सजौने
आँखि मे अश्रुक धार यौ।

कोना जानकी जनकक खुट्टा-
मे बान्हल रहती मुंह चुरू
दशरथ रामक मोल करै छथि
माँगै छथि कै-कै हजार यौ।

चासो भले उदास रौद सँ
परती भेल पाथर सन बज्जर
गंगाजल मे घोरल विष छै
यमुना कें फुफकार यौ।
</poem>
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