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<poem>
काटि रहल छी राति-दिन।
तड़पि रहल माछ जल बिन।

ककरो ने तृप्ति आर हास
आनन पर अश्रु आ‘ उदास
कंचन आ कामिनीक कोर
पूरित अतृप्ति आर प्यास

आंगुर पर एक-दू-तीन।
तड़पि रहल माछ जल बिन।

आंगन मे प्रश्नक गाछ
कोन झूठ आर कोन सांच
काटि-काटि तीरा गुलाब
रोपि रहल छी आगु-पाछ

अजगुत भेल आब निन्न।
तड़पि रहल माछ जल बिन।

पाथर सन जिनगी कठोर
स्याह भेल लाल तिलकोर
आशा निराशाक मांझ
तानल छै पातर डोर

बुझि रहलि छी निज कें हीन।
तड़पि रहल माछ जल बिन।
</poem>
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