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आग / भगवतीलाल व्यास

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केसूला रो अेक फूल
रेत पे फैंक नै
लोग नाल रिया है वाट
कै मौसम
अब बदळै, अब बदळै
अर वे अेक फूल रै
रंग सूं खेल सके फाग।
जरूरतां रा
घेर-घुमेर झाड़क्या में
फंसगी है
जिनगाणी री चिरकली
रूई ज्यूं पीनणी आग्या
पांखड़ा
होठां पे अण थाग झाग
गावै है दरद भर्यो गीत
जिणरौ अरथ है-
कठै वे आंबा अर
कठै वे बाग ?

रात ठण्डी अर मांदी
म्हूं सुलगावणों चावूं हूं
चिमनी
बरसां सूं कसेर रियो हूँ
अधबळ्या छाणां
उचींद रियो हूं राख
पण जाणै कठै गमगी है
आग ?
<poem>
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