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अगनी मंत्तर / भगवतीलाल व्यास

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आ, धरती!
थारी हथेळी दे
म्हारा हाथ में
म्हैं कोर दूं
इणमें मेंहदी रा
पांन-फूल।

ला, आकास!
थारौ दुसालो
दे म्हनै
म्हैं इण में टांक दूं
दो-चार
और सितारा।
ला, गंगा!
थारी धार
सूंप दे म्हनै
म्हैं पी जाऊं
इणरौ सगळौ
जैर
अेक दांण
फेर बण जाऊं
नीलकंठ
थनै कर दूं
निरमळ
आ, पून!
म्हारै कनै बैठ
तूं हांफ क्यूं रयौ है?
छनीक विसरांम कर
थनै सौरम रा
छंद सुणाऊं
सबदां रौ
अरथ समझाऊं!

आ, अगन!
इयां काळी/कियां पड़गी री तूं
क्यूं लजावै बावळी
कुळ रौ नांव
क्यूं फिरै चेतणा विहीण !
आ, नैड़ी
चेतण कर दूं थनै
अगनी-मंत्तर सूं।

जे तूं ही बुझगी/ तौ-
किण सूं
जळसी मिनखपणै
रा दिवळा
किण सूं/ परगटसी
आतम रौ उजास
किणरै आंगण रमसी
भविस् रा
बाळ-गोपाळ
<poem>
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