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नदी / भगवतीलाल व्यास

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अेक नदी ब्हेती ही
म्हारा में सूं
ब्हेती थकी
सूख गी है
इण दिनां
अब तौ नांव भी
याद नीं है
इण नदी रौ
ज्यूं रूंख सूख जावै
तौ वो जामुण, आम, नीम, बबूळ
नीं रेवै
बो लकड़ी व्है जावै फगत
इण तरै ई
रै’गी इै आ नदी
अेक रूपाहै नांव नै
बाळू में घणै उंडै
गाड़’र
काळ रै दियोड़ै
अेकान्त नै भोगती
रात-दिन।

लोग इण में
आपरौ बेरोजीपणौ, क्रोध
अवज्ञा अर लापरवाही
जिसी अणमहताऊ चीजां
नाख जाया करै है
आंतरै-पांतरै
सेवट में नदी
बण जावै है
अेक कूड़ादान
दूर-दूर तांई
पसर्यौड़े रेत रै
सपाट विस्तार ने
निरखती
उणमे अटकियौड़ै कांटा-भांटा
यूं लिपट्योड़ी सूखी काई
अर चीर-चीर घास नै
पंपोळती
अेलबम में चिपकियोड़ै
जूनै चितरामां री तरै।
</poem>
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