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<poem>
क्यूं करै आज मन
लिख दूं थनै फकत अे आखर
हुय जाऊं गूंगो
चीकणी ढलाणां तीसळूं-
किणी पुहुप री पांखड़ियां मे।

अलोप हुय जाऊं
सौरम रै देस।

नीं जाणूं
थूं सौरम है कै पुहुप कै बिछड़्योड़ी पांखड़ी।
पूठ लारै जठै हाथ नीं पूगै
उण ठौड़ जम्योड़ी पीड़ री गळाई
म्हैं थनै सोधूं आखी धरती पर।
अेकमेक हुय जावै धरती अर म्हारी पूठ
कांई कीं नीं लागैला छेवट म्हारै हाथ ?

पीड़ रै अदीठ गांव री पटराणी थूं
म्हनै नीं, म्हारै इण छे’लै आखर नै तौ दीजै परस
नींतर औ ई म्हारै दांई
भटकेलो आखी उमर अडोळो।
</poem>
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