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<poem>
सुंवारै-सुंवारै
जद आपां
नहा-धो रैया होवां
बै आवै
बुहारै-झाड़ै आपणी गळी
धोवै गंदी नाळयां
उठा‘र ले ज्यावै कूटळो
छठ-बारह म्हीना स्यूं
काढै गंदै नाळै री
मणां-टणां सिड़ती गाार
सोचूं-
जे अै न होंवता
आपां बैठया होंवता
गंदगी रै ढिग पर ।
</poem>
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