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<poem>
आसाढ मांय
अेकर बरस‘र
काढै रोज
ताता तावड़ा
तन्दूर ज्यूं तपै
मकान
जी निसरण नै
है त्यार
बारिस नीं सही
कुदरत
तेरै असूल मुताबिक
कीं हवा तो चला ।
</poem>
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