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|संग्रह=आसोज मांय मेह / निशान्त
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<poem>
खाली बैठ्या
सगळ-मेलै सारू
निकळ पड़्या
बिना बार-तिथ
देखण नै
देवता जी रो मिंदर
सोच्यो - जठै इत्ता लोग जावै
बा जिग्यां देख’र तो आवां
मिंदर रै आगै
मिनखां नै रोकण सारू
रोपेड़ी ही
लौ’ री पाइपां
पण बीं टेम तो बठै
चिड़ी भी नीं ही
सूनो पड़्यो हो सो’
आंगण
अेक-दो पण्डा -पुजारी
लेवै हा उबासी
इस्यै सूनै सै
माहौल मांय
देख’र देवता जी नै
म्हैं सोच्यो -
जै कठई देवता जी में
सोचण-विचारण री खिमता है
तो के सोचर्या होवला बिच्यारा अै
कै मिनख भी आछा है
आवै तो सारै दिन कान खावै
औसाण नीं लेवणद्यै
अर नीं आवै तो
सुन्याड़ बटका बोड-बोड खावै
</poem>
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