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सनीडेयच्छायाच्छरणशबलं चन्द्र शकलम् ।
धनुः शौनासीरं किमिति न निबध्नातिधिषणाम् ॥४२॥
 
धुनोतु ध्वान्तंनस्तुलित दलितेन्दीवर वनं ।
घन स्निग्धश्लक्ष्णं चिकुरनिकुरुम्बं तव शिवे ॥
यदीयं सौरभ्यं सहजमुपलब्धुं सुमनसो ।
वसन्त्यस्मिन्मन्ये वलमथनवाटी वितपिनाम् ॥४३॥
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