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Kavita Kosh से
दर्पणों में चल रहा हूँ मैं
चौखटों को छल रहा हु हूँ मैं
सामने लेकिन मिली हर बार
फिर वही दर्पण मढ़ी दिवारदीवार
फिर वही झूठे झरोखे द्वार
लौटकर फिर लौटकर आना वहीं
किन्तु इनसे छुट छूट भी पाना नहीं
टूट सकता, टूट सकता काश