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रहिमन निज मन दल मलै दलालनीकी बिथा, रूप अंग के भाई। मन ही राखो गोय।नैन मटकि मुख की चटकिसुनि अठिलैहैं लोग सब, गांहक रूप दिखाई॥337॥बाँटि न लैहैं कोय॥214॥
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