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प्रिये ! आया ग्रीष्म खरतर !
 
 
 
 
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|रचनाकार=कालिदास
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लूओं पर चढ घुमर घिरती धूलि रह रह हरहरा कर
चण्ड रवि के ताप से धरती धधकती आर्त्र होकर
प्रिय वियोग विदग्धमानस जो प्रवासी तप्त कातर
असह लगता है उन्हें यह यातना का ताप दुष्कर
प्रिये!आया ग्रीष्म खरतर!
 
 
 
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[[Category:संस्कृत]]
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तीव्र आतपतप्त व्याकुल आर्त्त हो महती तृषा से
शुष्कतालू हरिण चंचल भागते हैं वेग धारे
वनांतर में तोय का आभास होता दूर क्षण भर
नील अन्जन सदृशनभ को वारि शंका में विगुर कर
प्रिये!आया ग्रीष्म खरतर!
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