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सेमल / रामदरश मिश्र

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|संग्रह=दिन एक नदी बन गया / रामदरश मिश्र
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<poem>
प्रिय
तुम आये तो
मैं अपना हाड़-हाड़ फोड़कर
तुम्हारे लिए फूट पड़ा
और मेरा सारा रक्त फूल बनकर दहकता रहा।

अब इसमें मेरा क्या कसूर
कि मेरे सर्वस्व-समर्पण को भी
तुम अपनी गंध नहीं दे सके
और औरों का अधूरा समर्पण भी
तुम्हारी दी हुई साँस से महकता रहा।
</poem>
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