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बच्चा / रामदरश मिश्र

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|संग्रह=दिन एक नदी बन गया / रामदरश मिश्र
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<poem>
'''[1]'''

हम बच्चे से खेलते हैं
हम बच्चे की आँखों में झाँकते हैं
वह हमारी आँखों में झाँकता है
हमारी आँखों में
उसकी आँखों की मासूम परछाइयाँ गिरती हैं
और उसकी आँखों में
हमारी आँखों के काँटेदार जंगल।
उसकी आँखें
धीरे-धीरे काँटों का जंगल बनती चली जाती है
और हम गर्व से कहते हैं-
बच्चा बड़ा हो रहा है।

'''[2]'''


मेरे बेटे,
मैं नहीं जानता
कि तुम्हारी आँखों के आकाश में क्या-क्या है
हाँ, इतना जानता हूँ कि
मेरी मुट्ठी में कुछ नहीं है
पता नहीं, तुम्हें कहाँ तक पहुँचना है
मैं तो तुम्हें आँगन से
सड़क तक पहुँचा सकता हूँ
आओ मेरे बेटे,
मेरी अँगुली पकड़ लो
इसके सिवा मेरे पास है ही क्या ?
विधाता ने
जब तुम्हें मेरा बेटा बनाया होगा
तो बहुत खुश हुआ होगा-
चलो, भाग्य लिखने से छुट्टी मिली
सोचा होगा
यह तो आदमी है नहीं
बस, आदमी-सा दिखेगा
और लिखना होगा
तो खुद अपना भाग्य लिखेगा।

'''[3]'''

तुम चकित होकर देख रहे हो
कि तुम मि्टटी से पैदा हुए
मि्टटी में पले
मिट्टी में भीगे, और मिट्टी में जले
मिट्टी के रूप, रस, गंध, स्पर्श को
अपने प्राणों में भरते रहे
हर मौसम के तले
अपने को मिट्टी से एक करते रहे
और अभी-अभी
सीधे आकाश से जो देवशिशु उतरा है
(जिसे ऊपर ही ऊपर लोक लिया गया है)
उसकी जय बोली जा रही है-
‘‘धरती-पुत्र की जय !’’
नहीं, मेरे बच्चे
उधर मत देखो
वह दिशा तुम्हारी नहीं है।

1-9-81
</poem>
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