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चाँद! / प्रभाकर माचवे

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<poem>चंदा मामा, अब हम तेरा घर भी जान गए!
अब वो गप्पें नहीं चलेंगी
बुढ़िया-चरखा,
हिरन-रेंडियर
या स्याही का धब्बा!
अब तेरी क्या दाल गलेगी
गोल हो गया डब्बा!
चंदा मामा, अब हम तेरा तेवर पहचान गए!
नहीं रहे तुम अब मामाजी,
दूर देश के गोल-गोल लामा जी!
नहीं रहे अब नन्हे-मुन्ने,
जाओ पहन लो भी कुर्ता-पाजामा जी!
चंदा मामा! अब हम तेरा जादू सारा जान गए!

-साभार: बालभारती, सितंबर, 1969
</poem>
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