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एक मटर का दाना / प्रकाश मनु

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<poem>एक मटर का दाना था जी
एक मटर का दाना,
गोल-गोल था, सुंदर-सुंदर
था वह बड़ा सयाना!

घर से निकला, चौराहे पर
मिली उसे एक कार,
उछला-कूदा, कूदा-उछला
झटपट हुआ सवार
बैठ कार में, खूब अकड़कर
दौड़ा - दौड़ा - दौड़ा,
गलियाँ, सड़कें, चौरस्ते
सबको ही पीछे छोड़ा।
आगे-आगे, दौड़ा आगे
एक मटर का दाना!
एक मटर का दाना, था जो-
सचमुच बड़ा सयाना!

दिल्ली देखी, जयपुर देखा
कलकत्ते हो आया,
सभी अजूबे देख-देखकर
झटपट घर पर आया।
आ करके, नन्हे चुनमुन को
किस्सा वही सुनाया,
खूब हँसा वह, औरों को भी
खिल-खिल खूब हँसाया।

देखो, एक घुमक्कड़ समझो
मुझको जाना-माना,
इब्न बतूता संग घूमा हूँ
किस्सा बड़ा पुराना!
अजी मटर का दाना था वह
एक मटर का दाना!
एक मटर का दाना था
वह सचमुच बड़ा सयाना।
</poem>
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