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निंदिया आई / यश मालवीय

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<poem>निंदिया आई दौड़ी-दौड़ी,
हमने खाट बिछाई चौड़ी।

लिए खूब लंबे खर्राटे,
भागे बड़े मियाँ सन्नाटे,
सपने में इक महल बनाया
जोड़-जोड़कर कौड़ी-कौड़ी।

गढ़ी कहानी सच्ची झूठी,
कुंभकरण सी नींद न टूटी,
भले खोपड़ी पर टिक-टिक-टिक
घड़ी चलाती रही हथौड़ी।

सोते रहे पहनकर टाई,
कहाँ-कहाँ हम घूमे भाई,
सपने में ही जीभ जल गई
फिर भी खाई गरम पकौड़ी।
</poem>
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