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<poem>खिड़की दरवाजे सब बंद ही रहे
घर, आँगन कैसे मकरंद हो गए

एक हंसी टुह-टुह पलाश पर टंगी
एक हंसी पीत अमलतास पर पगी

धमनी के तार-तार मन्द्र ही रहे
घर, जंगल कैसे मकरंद हो गए

नदियों की रेत लो अबीर हो गयी
लहर-लहर रंग में कबीर हो गयी

छन्द रक्त ले के सब छन्द ही रहे
घर, जंगल कैसे मकरंद हो गए

धरती का खुला, खिला कोना-कोना
पल-पल मधु बाँट रही दोना-दोना

बांसुरी के पोर-पोर मंद ही रहे
घर, जंगल कैसे मकरंद हो गए
</poem>
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