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|रचनाकार=पृथ्वी पाल रैणा
}}
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अँधेरों का कोई रंग नहीं होता,
उजाले ही रंगों से छलते हैं ।
आँखें उजालों की मोहताज हैं,
तभी तो छली जाती हैं ।
जिन्हें अँधेरों में देखने
की कला आती है,
वे कभी छले नहीं जाते ।
अँधेरों में समता होती है,
और उजाले विषम होते हैं ।
आदमी को विषमता से नहीं,
समता से डर लगता है;
क्योंकि समता में निरपेक्षता होती है,
आदमी सापेक्षता चाहता है,
इसमें उसे अपने होने का
आभास होता है ।
निरपेक्षता उसे एक जाति बना देती है,
व्यक्ति नहीं रहने देती ।
आदमी व्यक्ति ही बना रहे
जाति न बन जाए
इसीलिए शायद वह
अँधेरों से डरता है ।
</poem>
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|रचनाकार=पृथ्वी पाल रैणा
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अँधेरों का कोई रंग नहीं होता,
उजाले ही रंगों से छलते हैं ।
आँखें उजालों की मोहताज हैं,
तभी तो छली जाती हैं ।
जिन्हें अँधेरों में देखने
की कला आती है,
वे कभी छले नहीं जाते ।
अँधेरों में समता होती है,
और उजाले विषम होते हैं ।
आदमी को विषमता से नहीं,
समता से डर लगता है;
क्योंकि समता में निरपेक्षता होती है,
आदमी सापेक्षता चाहता है,
इसमें उसे अपने होने का
आभास होता है ।
निरपेक्षता उसे एक जाति बना देती है,
व्यक्ति नहीं रहने देती ।
आदमी व्यक्ति ही बना रहे
जाति न बन जाए
इसीलिए शायद वह
अँधेरों से डरता है ।
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