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|रचनाकार=योगेंद्रकुमार लल्ला
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<poem>कर दो जी, कर दो हड़ताल,
पढ़ने-लिखने की हो टाल।
बच्चे घर पर मौज उड़ाएँ,
पापा-मम्मी पढ़ने जाएँ।

मिट जाए जी का जंजाल,
कर दो जी, कर दो हड़ताल!

जो न हमारी माने बात,
उसके बाँधो कस कर हाथ!
कर दो उसको घोटम-घोट,
पहनाकर केवल लंगोट।

भेजो उसको नैनीताल,
कर दो जी, कर दो हड़ताल!

राशन में भी करो सुधार,
रसगुल्लों क हो भरमार।
दो दिन में कम से कम एक,
मिले बड़ा-सा मीठा केक!

लड्डू हो जैसे फुटबाल,
कर दो जी, कर दो हड़ताल!

हम भी अब जाएँगे दफ्तर,
बैठेंगे कुरसी पर डटकर!
जो हमको दे बिस्कुट टॉफी,
उसको सात खून की माफी।

अपना है बस, यही सवाल,
कर दो जी, कर दो हड़ताल!
</poem>
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