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<poem>पर्वत से जो निकल रही है
मैदानों में मचल रही है,
कल-कल करती हुई नदी का
मैंने चित्र बनाया तो!

इधर मुड़ी है, उधर मुड़ी है
गाँव-शहर के साथ जुड़ी है,
हल्के-गाढ़े रंगों से भी
मैंने उसे सजाया तो!

झाड़ी-झुरमुट आसपास हैं
ऊँचे, पूरे पेड़ ख़ास हैं,
कैसा भी बन पड़ा चित्र है
करके काम दिखाया तो!

इसी तरह अभ्यास करूँगा
बढ़िया और प्रयास करूँगा,
चित्रकार भी बनना है, यह
मेरे मन में आया तो!

-साभार: नंदन, अक्तूबर, 1998, 43
</poem>
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