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उड़ा कबूतर / श्यामसिंह 'शशि'

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<poem>उड़ा कबूतर
गोपी चंदर!

सुन रे भइया
कहाँ उड़ोगे,
तारों के घर!
मुझे ले चलो
अपने संग में,
नहीं करूँगी
तुमको तंग मैं!
बोलो-बोलो
क्या सोचा है
मन के अंदर?
उड़ा कबूतर
गोपी चंदर!
बैठो पिंकी
मैं चलता हूँ
तारों के घर,
वहाँ मिलेगी
दूध-मलाई
ऐसी तुमने
कभी न खाई।
और मिलेगा
यार मछंदर!
उड़ा कबूतर
गोपी चंदर!

उड़कर पहुँचा
तारों के घर
पिंकी उतरी
फिर अंबर पर।
और चली यह
उछल-उछलकर
जैसे कोई
चलता बंदर!
उड़ा कबूतर
गोपी चंदर!
</poem>
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