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आ गया जाड़ा / शिवचरण चौहान

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<poem>खोलकर खिड़की किवाड़ा
आ गया जाड़ा!
दाँत पढ़ते हैं पहाड़ा
आ गया जाड़ा!

टोप कानों पर चढ़ा
सीने कसा स्वेटर,
अंग सारे ढके फिर भी
काँपते थर-थर।
ताल में आया सिंघाड़ा
भा गया जाड़ा!

दाँत उग आए-
लगा अब काटने पानी,
अब नहाने से बहुत
डरने लगी नानी।
पीटता आया नगाड़ा-
छा गया जाड़ा!
</poem>
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