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|रचनाकार=दिनेश कुमार स्वामी 'शबाब मेरठी']]
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<poem>
मिरी नज़र के सामने धुआँ- धुआँ-सा छा गया
कि रौशनी चिराग़ की न जाने कौन खा गया
थकी-थकी-सी ज़िन्दगी की शाम भी कहाँ हुई
मैं ख़ुद को ढूँढते हुए जब उसके दर पे आ गया
ये सर्द रात का सफ़र न घर कहीं न रहगुज़र
न वापसी का ही कोई वो रास्ता बता गया
हर इक ख़ुशी दबे क़दम ठिठक के दूर हट गई
दुखों की रात में कोई मेरा पता बता गया
</poem>
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मिरी नज़र के सामने धुआँ- धुआँ-सा छा गया
कि रौशनी चिराग़ की न जाने कौन खा गया
थकी-थकी-सी ज़िन्दगी की शाम भी कहाँ हुई
मैं ख़ुद को ढूँढते हुए जब उसके दर पे आ गया
ये सर्द रात का सफ़र न घर कहीं न रहगुज़र
न वापसी का ही कोई वो रास्ता बता गया
हर इक ख़ुशी दबे क़दम ठिठक के दूर हट गई
दुखों की रात में कोई मेरा पता बता गया
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