भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
तुम्हें गाली-गुप्तार की
ध्वनि सुनाई देती है
तुझे
पसन्द नहीं है
मेरा कहानी लिखना
मेरी लिखी कहानी
को तुम
झूठ का पुलिन्दा कहते हो।
तुझे
पसन्द नहीं है
मेरी आत्मकथा,
इस आत्मवृतान्त को
तुम ढकोसला कह
उसे अतिरंजित बताते हो।
मेरी हर उस रचना पर
तुम गहरी चुप्पी ओढ़ लेते हो
जिससे प्रतिध्वनित होता है
तुम्हारे ढाए जुल्मों के खिलाफ
मेरा खुला विद्रोह।
जब मैं खारिज करता हूँ
सिरे से
तेरे लिखे सहानुभूतिजन्य साहित्य को,
तुम नख-शिख सुलग जाते हो।
तुम्हारा
यह दोगलापन
यह शुतुरमुर्गी चुप्पी,
तुम्हारे खून में ही क्यों समाई हुई है?
</poem>