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शिलुका / पद्मा सचदेव

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<poem>देह जलाकर मैं अपनी
लौ दूं अंधेरे को
जलती-जलती हंस पडूं
जलती ही जीती हूं मैं
जैसे बटोत के जंगल में
जल रही शिलुका कोई
देवदारों की धिया (बेटी)
चीड़ों की मुझे आशीष
अंधेरे की मैं रोशनी...
जंगल का हूं मोह मैं
जो तू है वही हूं मैं
अपनी मृत्यु पर रोई
यह बस्ती टोह ली
चक्की में डालकर
बांह पीसती हूं मैं
लोक पागल हो गया
तुझे कहां ढूंढता रहा
तू तो मेरे पास था
तभी तो जीती हूं मैं
मैं एक कितबा हूं
लिखा हुआ हिसाब हूं
मैं पर्णकुटिया तेरी
लाज
तुम रखना मेरी
रमिया रहीमन हूं मैं
कुछ तो यक़ीनन हूं मैं!

(शिलुका -चीड़ की लकड़ी, जो मोमबत्ती की तरह पहाड़ों में लोग घरों में जलाते हैं।)
</poem>
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