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<poem>एक नदी की तरह
सीख गई है घरेलू औरत
दोनों हाथों में बर्तन थाम
चौकें से बैठक तक लपकना
जरा भी लड़खड़ाए बिना

एक सांस में वह चढ़ जाती है सीढ़ियां
और घुस जाती है लोकल में
धक्का मुक्की की परवाह किए बिना
राशन की कतार उसे कभी लम्बी नहीं लगी
रिक्शा न मिले
तो दोनों हाथों में झोले लटका
वह पहुंच जाती है अपने घर
एक भी बार पसीना पोंछे बिना

एक कटोरी दही से तीन कटोरी रायता
बना लेती है खांटी घरेलू औरत
पाव भर कद्दू में घर भर को खिला लेती है
जरा भी घबराए बिना!</poem>
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