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गान्धारी-2 / शशि सहगल

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<poem>गांधारी
होगी तुम पतिव्रता
पर एक बात जान लो
आंखों पर पट्टी बांध लेने से
नहीं चलता पति का अता-पता
अनेक दासियों वाले महलों में
जब इधर-उधर
दीवारों से टकराते होंगे धृतराष्ट्र
तब
राजा को सहारा देने के बहाने
बढ़ जाते होंगे कुछ हाथ
और तुम
अपनी पट्टी की गरिमा में
खुद को महासती के गौरव भार के नीचे दबती
जरूर महसूस करती होगी

क्यों बांधी थी तुमने उस क्षण
आंखों पर पतिव्रत्य की पट्टी
सच बतलाना, क्या वह प्रतिशोध था?
धृतराष्ट्र को तिल-तिल गलाने का
या गौरव से मंडित हो
मान और प्रतिष्ठा के पद पर आसीन होने का
कुछ भी कहो गांधारी
मैं नहीं हो पाई अभिभूत
तुम्हारे इस महासती रूप से
न कल और न ही आज

मेरा मन तो तुम्हें शाप देने को होता है
करोड़ों अज्ञानी और मूढ़ नारियों को तुमने
अपने इस महासती के आदर्श तले दबा दिया
क्या मिला तुम्हें गांधारी
जो अपनी व्यक्तिगत पीड़ा का बदला
समूची नारी जाति से लिया?
आज
हर अंधा या नयनसुख पति
यही चाहता है
कि उसकी गांधारी
आंखों से कभी पट्टी न उतारे!
</poem>
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