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सन्तुलन / शशि सहगल

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<poem>ससुराल की जिस दहलीज पर
कल
मेरा पिता खड़ा था
आज
वहां तुम खड़े हो
और कल
वहीं खड़ा होगा तुम्हारा दामाद
सोचती हूं, क्या फर्क पड़ता है
पीढ़ियों के बदल जाने से
बाप की ऐंठन
जली रस्सी-सी
पड़ी है तुम्हारे सामने
और तुम
आत्मविश्वास के पिरामिड से
सीधे तने हुए
महानता का दम्भ ओढ़े
खड़े हो मेरे सामने
तुम्हारा दामाद
विरासत में पायी ऐंठन और दम्भ को
और अधिक मांज कर
खड़ा हो जाएगा हमारे सामने
तब मैं
संतुलन का व्यर्थ प्रयास साधती
तराजू के कांटे-सी
झुकती रहूंगी
कभी इधर
कभी उधर!
</poem>
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