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औरत का क़द / नीरा परमार

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<poem>तब नींव के कान खड़े हो जाते हैं
किसी हादसे की धमक से
मिट्टी की गहराइयों में दूर तक
कांप-करक जाती है धरती
जब
किसी औरत का कद
पीपल-सा
घर की छत फोड़
मुंडेर से छलांग लगा लेना चाहता है
अंतरिक्ष में
तब चौकस-चौबंद हो उठते हैं
बुर्ज मीनार किले कंगूरे
झाड़ी जाने लगती है धूल
उलटे जाने लगते हैं पन्ने
शास्त्रों-पुराणों विधि-विधानों
प्रमाणों-उदाहरणों के चलने लगते हैं
आरे
सान पर चढ़ते हैं रंदे-बसूले
रीति-रिवाजों मर्यादाओं परंपराओं और वर्जनाओं के
खूंटे
ठोंके जाने लगते हैं मजबूती से
जब
औरत सूरज को अंजुरी-अंजुरी पीने को
अपनी टहनियां फूल-पत्तियां
दरवाजों-खिड़कियों और चाहरदीवारी से
सरकाने लगती है
बाहर...!</poem>
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