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अन्तर्सजा / नीरा परमार

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<poem>बहुत देख लिया
नून-तेल आटा-दाल
बटलोई-कड़छुलवाली
रसोईघर की खिड़की से
बादल का छूटता
कोना
यह सोफा कुर्सियां मेज पलंग फूलदान
उधर धर दो

कैलेण्डर में सुबह-शाम बंधे
गलियारे में पूरब-पश्चिम कैद
उस कोने में वह स्नान कोठरी
घिरा बरामदा इधर हटाकर

तारों का कद छूती
पहाड़ों की ये चोटियां
इस खिड़की पर गिरते
झरने की धारा
यहां टिका दो!

चन्द्र ज्योत्स्ना पीकर उफनाया
समुद्र टंगेगा
हवाओं में धुलती बदलती ऋतुएं
जंगलों की बनघास की सुगन्ध
आकाशगंगा में नहाए
ग्रह-उपग्रह नक्षत्र नीहारिकाएं
करवट बदलने को करतीं विवश

ये से इस तरह रख दो
इस आले और उस तख्ते पर
बीच दहलीज़
पश्चिम के दरवाजे़ और पूरब के चौरे पर
तुम्हारी व्यवस्था में
अपनी धरती पर बिछाना है मुझे
उत्तरी धु्रव तक फैला
नीले झूमर-सा झिलमिलाता
...आकाश...!

(साभार: नारी संवाद)</poem>
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