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खोज की बुनियाद / सुशीला टाकभौरे

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<poem>यह
रहस्य तो नहीं
खोज की बुनियाद है
आज फिर
मैं
उड़ने लगी हूं बे-पर
बंजर जमीन पर
फूटे हैं
अंकुर
आस की दूब चरने लगा है
मन का मिरग
किस दिशा से बांधोगे तुम
इसे
काल का गिलमा भी तो
छोटा है

एकान्त होठों पर वह
विस्मित रेखा
हास्य की बात है या रुदन तीखा
कैसे देखोगे
जगती आंखों से दिन में तारे
रात का सूरज
और वीरानों में भौरों का गंुजार

गूंज उठा है
फिर वही
आदिम स्वर!</poem>
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