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{{KKRachna
|रचनाकार=ज़ाहिद अबरोल
|संग्रह=दरिया दरिया-साहिल साहिल / ज़ाहिद अबरोल
}}
[[Category:ग़ज़ल]]
<poem>
सब की सुन लो हर शिकायत और शिकवः जान लो
अपने हांेठों से किसी को भी मगर ता‘ना न दो
दूसरों से ज़ख़्म जो पाये, ख़ुदा पर छोड़ दो
ज़ख़्म जो ख़ुद को दिये उनकी शिफ़ा ख़ुद ही करो
हर जगह मिल जायेगे दिलदार-ओ-दिलख़स्तः बहुत
अजनबी शहरों में भी अपना सा कोई ढूंढ लो
दिल की ओहदःदारीयां तब ही निभा पाओगे तुम
ख़्वाब हो या हो हक़ीक़त दोनों में यकसां रहो
काठ के, फ़ौलाद के हों या लहू और मांस के
एक से हैं सारे दरवाज़े कहीं दस्तक न दो
दश्त हों, परबत कि सहरा, पांव के नीचे हैं सब
अब तुम्हारी है यह हिम्मत, दोस्तो चलते चलो
इस जहां में मिलने वाले कम हुए जाते हैं अब
किस जगह चलना है “ज़ाहिद” बैठ कर कुछ सोच लो
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</poem>
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|रचनाकार=ज़ाहिद अबरोल
|संग्रह=दरिया दरिया-साहिल साहिल / ज़ाहिद अबरोल
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[[Category:ग़ज़ल]]
<poem>
सब की सुन लो हर शिकायत और शिकवः जान लो
अपने हांेठों से किसी को भी मगर ता‘ना न दो
दूसरों से ज़ख़्म जो पाये, ख़ुदा पर छोड़ दो
ज़ख़्म जो ख़ुद को दिये उनकी शिफ़ा ख़ुद ही करो
हर जगह मिल जायेगे दिलदार-ओ-दिलख़स्तः बहुत
अजनबी शहरों में भी अपना सा कोई ढूंढ लो
दिल की ओहदःदारीयां तब ही निभा पाओगे तुम
ख़्वाब हो या हो हक़ीक़त दोनों में यकसां रहो
काठ के, फ़ौलाद के हों या लहू और मांस के
एक से हैं सारे दरवाज़े कहीं दस्तक न दो
दश्त हों, परबत कि सहरा, पांव के नीचे हैं सब
अब तुम्हारी है यह हिम्मत, दोस्तो चलते चलो
इस जहां में मिलने वाले कम हुए जाते हैं अब
किस जगह चलना है “ज़ाहिद” बैठ कर कुछ सोच लो
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