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|रचनाकार=मनीषा कुलश्रेष्ठ
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<poem>क्यों लगता है औरत को
कि
वह नहीं सुनता उसकी
सालों से
एक मोटी दीवार के
पीछे से
बतियाती रही है वह
बेवजह
या
जिसे वह पुकार कहती है
वह महज गूंज हो
आवारा सन्नाटों की
जिनसे वह दिन - दिन भर उलझी है
शायद वह नहीं जानती
कितना कानफाडू शोर है
घर से बाहर की दुनिया में
कितने प्रश्न गैरों के
कितनी कैफ़ियतें अपनों की
कितनी चीखें अजनबियों की
शायद पहुंचती ही न हो
उसकी वह धीमी सी पुकार
कानों में हमेशा के लिये
खिंच गई
शोर की मोटी दीवार के पार</poem>
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