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जूण जंजाळ री / संजय पुरोहित

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|रचनाकार=संजय पुरोहित
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{{KKCatKavita‎}}<poem>निरख‘र मुरझाऊं
नीं समेट पाऊं
खण्ड खण्ड खिण्डयोळै
वजूद ने म्हारै
पिछाण गुम अंतस अंधारौ
अर विचारां मांय घमसाण
लीर लीर जिनणी
निजर बिन चितराम
तळै बैठी आतमा
हाका करती काया
मुंडौ बणावंती चींत
पसरती छिब
तो कीं म्हैं
जी रैयो हूं
जूण जंजाळ री ?
नीं
नीं जीणौ जूण इण भांत
म्हैं करूं उडीक
सोनलिये सूरज री
लावैलो नूंवो परभात
म्हारै सोच रे आंगणै
आज नीं तो
काल
</poem>
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