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<poem>चलती हुई सोचती हूँ
- सारे काम-काज तो हो ही जाते हैं
बर्तन भी धो लेती हूँ कामवाली के न आने पर
भीगे कपडे फैलाकर,
सूखे कपडे तहाकर
बैठ जाती हूँ कुछ लिखने-पढ़ने
… इस बीच लेटने का ख्याल कई बार आता है
पर नहीं लेटती …
कभी थोड़ी पीठ अकड़ती है
कभी घुटना दर्द करता है
हाथ कंधे के पास से जकड़ा हुआ लगता है
तो बिना नागा उम्र को उँगलियों पर जोड़ती हूँ
जबकि पता है
फिर भी … !
फिर सोचती हूँ,
अगले साल भी इतनी तत्परता से चल पाऊँगी न
और उसके अगले साल …
"जो होगा देखा जायेगा" सोचकर
खोल लेती हूँ टीवी
बजाये मन लगने के होने लगती है उबन
सोचने लगती हूँ,
पहले तो कृषि दर्शन भी अच्छा लगता था
झुन्नू का बाबा
चित्रहार
अब तो अनेकों बार आँखें टीवी पर होती हैं
ध्यान कहीं और …

ये वाकई उम्र की बात है
या अकेले होते जाते समय का प्रभाव ?
पर यादों की आँखमिचौली तो रोज चलती है
काल्पनिक रुमाल चोर भी
अमरुद के पेड़ पर भी सपनों में तेजी से चढ़ती हूँ

फिर भी,
सुबह जब बिस्तरे से नीचे पाँव रखती हूँ
स्वतः उम्र जोड़ने लगती हूँ
सोचने लगती हूँ
जितनी आसानी से अपने बच्चों को
पाँव पर खड़ा करके झूला झुलाती थी
क्या बच्चों के बच्चों को झुला पाऊँगी !!!

सच तो यही है
कि अभी तक कोई छोटा मोटा काम नहीं किया है
गोवर्धन की तरह ज़िन्दगी को ऊँगली पर उठाया है
फिर अब क्यूँ नहीं ??

यह सोचना एक आम दिनचर्या है !</poem>
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