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छत पर / रेखा चमोली

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<poem>सुबह से
अब जाकर मिली है
थोडी फुर्सत
पीठ को दिखा दंे धूप
भर लें थोडी गर्माहट
ठंडे हाथ पैरों में
छत में आते समय
कोई उदास थी
कोई रुऑसी या गुस्से में
कोई परेशान सी लग रही थी
थोडी ही देर में
जाने क्या जादू होता है ?
खिलखिलाती हैं जोर से
कोई झूठमूठ की नाराजगी जता
धकेल देती है दूसरी को परे
कभी इतनी जोर से ठहाके लगाती हैं कि
एक पल को ठिठक जाता है
गली में चलता आदमी
इसी बीच
पलटाती हैं धुले कपडे
सुखाती हैं गेहूॅ ,दाल ,मसाले
फेरी वाले को बुला, करती हैं मोलभाव
एक दूसरे की पीठ खुजाते, बाल बनातेे
सहलाती हैं बासी जख्म
यहॉ, एक आत्मीय मुस्कान के आगे
माथा टेक देता है
गहरे से गहरा राज
किसी एक को लगती मायके की खुद में
भीग जाते हैं सबके पल्लू
तो खुशी से भर उठता है मन
स्ुानकर कोई अच्छी खबर
आधी रात में भी
टूटती है जब नींद
आ ही जाती है किसी न किसी को
छत की याद।
</poem>
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