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|रचनाकार=कुमार रवींद्र
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|संग्रह=चेहरों के अन्तरीप / कुमार रवींद्र
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<poem>आधे हुए पौने हुए
सूरज चढ़े मीनार पर
बौने हुए


अंधी सरायों में
सफर के बाद दिन जाकर टिके
निकले सुबह से हाट में
खोटे टकों में घर बिके

फिर गुंबजों के खेल में
हैरान मृगछौने हुए

लादे हवाओं के किले
बूढ़ी सुरंगों में चले
सारे शहर में घूमकर
ठंडी गुफाओं में गले

टूटे घरौंदों की गली से
धूप के गौने हुए
</poem>
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