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|संग्रह=चेहरों के अन्तरीप / कुमार रवींद्र
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<poem>ओढ़कर शाही लबादे
लौट आये दिन ढले
घर थके-माँदे

गये थे सपने उगाने
चाँद की पगडंडियों पर
पंख चिड़ियों के कटे हैं
हाँफते बूढ़े कबूतर

हँस रहे
उन पर सुबह से
मुँह-छिपाए शाहज़ादे

रोज़ महलों में बुलाते
शाह के फ़रमान अंधे
रोज़ गलियों से निकलते
टूटते बीमार कंधे

जी रहे घर
खानदानी धूप की
मीनार लादे
</poem>
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